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NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 15 - In Hindi

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NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 15 Plant Growth and Development in Hindi PDF Download

Download the Class 11 Biology NCERT Solutions in Hindi medium and English medium as well offered by the leading e-learning platform Vedantu. If you are a student of Class 11, you have reached the right platform. The NCERT Solutions for Class 11 Biology in Hindi provided by us are designed in a simple, straightforward language, which are easy to memorise. You will also be able to download the PDF file for NCERT Solutions for Class 11 Biology in Hindi from our website at absolutely free of cost.

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Table of Content
1. NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 15 Plant Growth and Development in Hindi PDF Download
2. Access NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter- 15 Plant Growth and Development
3. NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 15 Plant Growth and Development in Hindi


Class:

NCERT Solutions for Class 11

Subject:

Class 11 Biology

Chapter Name:

Chapter 15 - Plant Growth and Development

Content-Type:

Text, Videos, Images and PDF Format

Academic Year:

2024-25

Medium:

English and Hindi

Available Materials:

Chapter Wise

Other Materials

  • Important Questions

  • Revision Notes


NCERT, which stands for The National Council of Educational Research and Training, is responsible for designing and publishing textbooks for all the classes and subjects. NCERT textbooks covered all the topics and are applicable to the Central Board of Secondary Education (CBSE) and various state boards.


We, at Vedantu, offer free NCERT Solutions in English medium and Hindi medium for all the classes as well. Created by subject matter experts, these NCERT Solutions in Hindi are very helpful to the students of all classes.

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Access NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter- 15 Plant Growth and Development

1. वृद्धि, विभेदन, परिवर्धन, निर्विभेदन, पुनर्विभेदन, सीमित वृद्धि, मेरिस्टेम तथा वृद्धि दर की परिभाषा दें।

उत्तर:

1. वृद्धि: ऊर्जा खर्च करके होने वाली उपापचयी क्रियाएँ वृद्धि हैं। किसी भी जीवित प्राणी के लिए वृद्धि एक उत्कृष्ट घटना है। यह एक अनपलट, बढ़तयुक्त तथा मापदण्ड में प्रकट होने वाली क्रिया है; जैसे-आकार, क्षेत्रफल, लम्बाई, ऊँचाई, आयतन, कोशिका संख्या आदि।

2. विभेदन: शीर्ष विभज्योतक  में बनने वाली कोशिकाएँ सर्वप्रथम समान होती हैं परन्तु बाद में विभेदिकरण के कारण विभिन्न रूपों में परिवर्तित होती है; जैसे-जाइलम व फ्लोएम के तत्त्व आदि।

3. परिवर्धन: परिवर्धन वह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत एक जीव के जीवन चक्र में आने वाले वे सारे बदलाव शामिल हैं, जो बीजांकुरण तथा जरावस्था के मध्य आते हैं।

4. निर्विभेदन: जीवित विभेदित स्थायी कोशिकाएँ जिनमें कोशिका विभाजन की क्षमता नहीं होती, उनमें से कुछ कोशिकाओं में पुन:विभाजन की क्षमता स्थापित हो जाती है। इस प्रक्रिया को निर्विभेदन कहते हैं; जैसे–कॉर्क एधा, अन्तरापूलीय एधा।

5. पुनर्विभेदन: निर्विभेदित कोशिकाओं या ऊतकों से बनी कोशिकाएँ अपनी विभाजन क्षमता पुनः खो देती हैं और विशिष्ट कार्य करने के लिए रूपान्तरित हो जाती हैं। इस प्रक्रिया को पुनर्विभेदन कहते हैं।

6. सीमित वृद्धि: पौधों में वृद्धि सीमित भी होती है और असीमित भी। पौधे जीवनपर्यन्त वृद्धि करते रहते हैं; अतः इनमें असीमित वृद्धि की क्षमता होती है। इस वृद्धि का कारण विभज्योतक ऊतक के शीर्ष पर उपस्थित है (मूल शीर्ष, स्तम्भ शीर्ष)। पार्श्व विभज्योतक के कारण पौधे चौड़ाई में बढ़ते हैं।

7. मेरिस्टेम: ये विभज्योतक ऊतक हैं। इनकी कोशिकाएँ सदैव विभाजित होती रहती हैं। ये ऊतक के शीर्ष व पाश्र्व में मिलता है; जैसे—मूल शीर्ष, स्तम्भ शीर्ष, कैम्बियम आदि।

8. वृद्धि दर: समय की प्रति इकाई में बढ़ी हुई वृद्धि को वृद्धि दर कहते हैं। इसे गणित रूप में दर्शाया जा सकता है। एक जीव अथवा उसका अंग विभिन्न तरीकों से अधिक कोशिका निर्माण कर सकता है। वृद्धि दर इसे ज्यामितीय अथवा अंकगणितीय रुप से दर्शाती है।


2. पुष्पित पौधों के जीवन में किसी एक प्राचालिक से वृद्धि को वर्णित नहीं किया जा सकता है, क्यों?

उत्तर : वृद्धि के प्राचालिक- वृद्धि सभी जीवधारियों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। पौधों में वृद्धि कोशिका विभाजन, कोशिका विवर्धन या दीर्धीकरण तथा कोशिका विभेदन के फलस्वरूप होती है। पौधे की मेरिस्टेम कोशिकाओं में कोशा विभाजन की क्षमता पाई जाती है। सामान्यतया कोशिका विभाजन जड़ तथा तने के शीर्ष पर होता है। इसके फलस्वरूप जड़ तथा तने की लम्बाई में वृद्धि होती है। एधा तथा कॉर्क एधा के कारण तने और जड़ की मोटाई में वृद्धि होती है। इसे द्वितीयक वृद्धि कहते हैं। कोशिकीय स्तर पर वृद्धि मुख्यतः जीवद्रव्य मात्रा में वर्धन का परिणाम है। जीवद्रव्य की बढ़ोतरी या वर्धन का मापन कठिन है। वृद्धि दर मापन के कुछ मापदण्ड हैं–ताजे भोर में वृद्धि, शुष्क भार में वृद्धि, लम्बाई, क्षेत्रफल, आयतन तथा कोशिका संख्या में वृद्धि आदि। मक्का की जड़ को अग्रस्थ मेरिस्टेम प्रति घण्टे लगभग 17,500 कोशिकाओं का निर्माण करता है। तरबूज की कोशिका के आकार में लगभग 3,50,000 गुना वृद्धि हो सकती है। पराग नलिका की लम्बाई में वृद्धि होने से यह वर्तिकाग्र, वर्तिका से होती हुई अण्डाशय में स्थित बीजाण्ड में प्रवेश करती है।


3.संक्षिप्त वर्णित कीजिए-

(1) अंकगणितीय वृद्धि

(2) सिग्मॉइड वृद्धि वक्र

(3) ज्यामितीय वृद्धि

(4) सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर

उत्तर: 

  1. अंकगणितीय वृद्धि


(Image will be uploaded soon)


समसूत्री विभाजन के पश्चात् बनने वाली दो संतति कोशिकाओं में से एक कोशिका निरन्तर विभाजित होती रहती है और दूसरी कोशिका विभेदित एवं परिपक्व होती रहती है। अंकगणितीय वृद्धि को हम हैं निश्चित दर पर वृद्धि करती जड़ में देख सकते हैं। यह है एक सरलतम अभिव्यक्ति होती है। संलग्न चित्र में वृद्धि (लम्बाई) समय के विरुद्ध आलेखित की गई है।इसके फलस्वरूप रेखीय वक्र (linear curve) प्राप्त होता है। इस वृद्धि को हम गणितीय रूप से व्यक्त कर सकते हैं

L1 =L0 +rt

L1 = समय ‘r’  पर लम्बाई,

L0= समय  ‘0’  पर लम्बाई

r = वृद्धि दर दीर्घाकरण प्रति इकाई समय में


(Image will be uploaded soon)

 

(2) सिग्मॉइड वृद्धि वक्र


(Image will be uploaded soon)


एक कोशिका की वृद्धि अथवा पौधे के एक अंग की वृद्धि अथवा पूर्ण पौधे की वृद्धि सदैव एकसमान नहीं होती हैं.

प्रारम्भिक धीमा वृद्धि काल 

में वृद्धि की दर पर्याप्त धीमी होती है। तत्पश्चात् यह दर तीव्र हो जाती है और उच्चतम बिन्दु तक पहुँच जाती है। इसे मध्य तीव्र वृद्धि काल छ कहते हैं। इसके पश्चात् यह दर धीरे-धीरे कम होती जाती है और अन्त में में स्थिर हो जाती है। इसे अन्तिम धीमा वृद्धि काल कहते हैं। इसे ज्यामितीय वृद्धि कहते हैं। इसमें सूत्री विभाजन से बनी दोनों संतति कोशिकाएँ एक समसूत्री कोशिका विभाजन को


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अनुकरण करती हैं और इसी प्रकार विभाजित होने की क्षमता बनाए रखती हैं। यद्यपि सीमित पोषण, आपूर्ति के साथ वृद्धि दर धीमी होकर स्थिर हो जाती है। समय के प्रति वृद्धि दर को ग्राफ पर अंकित करने पर एक सिग्मॉइड वक्र प्राप्त होता है। यह ‘S’ की आकृति का होता है। ज्यामितीय वृद्धि को गणितीय रूप से निम्नलिखित प्रकार व्यक्त कर सकते हैं


(Image will be uploaded soon)


W1 =

जहाँ W1 = अन्तिम आकार–भार, ऊँचाई, संख्या आदि

W0 = प्रारम्भिक आकार, वृद्धि के प्रारम्भ में

r = वृद्धि दर (सापेक्ष वृद्धि दर)

t = समय में वृद्धि

e = स्वाभाविक लघुगणक का आधार

r = एक सापेक्ष वृद्धि दर है। यह पौधे द्वारा नई पादप सामग्री का निर्माण क्षमता को मापने के लिए है, जिसे एक दक्षता सूचकांक के रूप में संदर्भित किया जाता है;अतः W1 का अन्तिम आकार W0 के प्रारम्भिक आकार पर निर्भर करता है।


(3) ज्यामितीय वृद्धि

ज्यामितिक वृद्धि को तीन प्रावस्थाओं में विभक्त कर सकते हैं-

  • प्रारम्भिक धीमा वृद्धि काल 

  • मध्य तीव्र वृद्धि काल 

  • अन्तिम धीमा वृद्धि काल 

यदि वृद्धि दर का समय के प्रति ग्राफ बनाएँ तो ‘S’ की आकृति का वक्र प्राप्त होता है। इसे सिग्मॉइड वृद्धि वक्र कहते हैं।


(4) सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर

मापन और प्रति यूनिट समय में कुल वृद्धि को सम्पूर्ण या परम वृद्धि दर किसी दी गई प्रणाली की प्रति यूनिट समय में वृद्धि को सामान्य आधार पर प्रदर्शित करना सापेक्ष वृद्धि दर कहलाता है।


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दोनों पत्तियों ने एक निश्चित समय में अपने सम्पूर्ण क्षेत्रफल में समान वृद्धि की है, फिर भी A की सापेक्ष वृद्धि दर अधिक है।


4. प्राकृतिक पादप वृद्धि नियामकों के पाँच मुख्य समूहों के बारे में लिखिए। इनके आविष्कार, कार्यिकी प्रभाव तथा कृषि/बागवानी में इनके प्रयोग के बारे में लिखिए।

उत्तर : प्राकृतिक पादप वृद्धि नियामक-

पौधों की विभज्योतकी कोशिकाओं और विकास करती पत्तियों एवं फलों में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होने वाले विशेष कार्बनिक यौगिकों को पादप हॉर्मोन्स कहते हैं। ये अति सूक्ष्म मात्रा में परिवहन के पश्चात् पौधों के अन्य अंगों (भागों) में पहुँचकर वृद्धि एवं अनेक उपापचयी क्रियाओं को प्रभावित एवं नियन्त्रित करते हैं। वेण्ट (1928) के अनुसार वृद्धि नियामक पदार्थों के अभाव में वृद्धि नहीं होती। पादप हॉर्मोन्स को हम निम्नलिखित पाँच प्रमुख समूहों में बाँट लेते हैं

(1) ऑक्सिन 

(2) जिबरेलिन 

(3) सायटोकाइनिन 

(4) ऐब्सीसिक अम्ल 

 (5) एथिलीन 


1. ऑक्सिन

सर्वप्रथम डार्विन (1880) ने देखा कि कैनरी घास के नवोभिद् के प्रांकुर चोल एकतरफा प्रकाश की ओर मुड़ जाते हैं, परन्तु प्रांकुर चोल के शीर्ष को काट देने पर यह एकतरफा प्रकाश की ओर नहीं मुड़ता।बायसेन :

जेन्सन (1910-1913) ने कटे हुए प्रांकुर चोल को अगार के घनाकार टुकड़े पर रखा, कुछ समय पश्चात् अगार के घनाकार टुकड़े को कटे हुए प्रांकुर चोल के स्थान पर रखने के पश्चात् एकतरफा प्रकाश से प्रकाशित करने पर प्रांकुर चोल प्रकाश की ओर मुड़ जाता है। वेण्ट (1928) ने इसी प्रकार के प्रयोग जई के नवोभिद् पर किए। उन्होंने प्रयोग से यह निष्कर्ष निकाला कि प्रांकुर चोल के शीर्ष पर बना रासायनिक पदार्थ अगार के टुकड़ों (block) में आ गया था। वेण्ट ने प्रांकुर चोल के कटे हुए शीर्ष को दो अगार के टुकड़ों पर रखा जिनके मध्य अभ्रक (माइका) की पतली प्लेट लगी थी, एकतरफा प्रकाश डालने पर रासायनिक पदार्थ का 65% भाग अप्रकाशित दिशा के टुकड़े में एकत्र हो जाता है और केवल 35% रासायनिक पदार्थ प्रकाशित दिशा के टुकड़े में एकत्र होता है।


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वेण्ट ने इस रासायनिक पदार्थ को ऑक्सिन नाम दिया। ऑक्सिन की सान्द्रती तने में वृद्धि को प्रेरित करती है और जड़ में वृद्धि का संदमन करती है। ऑक्सिन के असमान वितरण के फलस्वरूप ही प्रकाशानुवर्तन (phototropism) और गुरुत्वानुवर्तन गति होती है। केनेथ थीमान ने ऑक्सिन को शुद्ध रूप में प्राप्त करके इसकी आण्विक संरचना ज्ञात की। ऑक्सिन के कार्यिकी प्रभाव एवं उपयोग

(i) प्रकाशानुवर्तन एवं गुरुत्वानुवर्तन: ऑक्सिन की अधिक मात्रा तने के लिए वृद्धिवर्धक तथा जड़ के लिए वृद्धिरोधक (inhibition) प्रभाव रखती है।

(ii) शीर्ष प्रभाविता: सामान्यतया पौधों के तने या शाखाओं के शीर्ष पर स्थित कलिका से स्रावित ऑक्सिन पाश्र्वीय कक्षस्थ कलिकाओं की वृद्धि का संदमन करते हैं। शीर्ष कलिका को काट देने से पाश्र्वीय कलिकाएँ शीघ्रता से वृद्धि करती हैं। चाय बागान में तथा चहारदीवारी के लिए प्रयोग की जाने वाली हैज को निरन्तर काटते रहने से झाड़ियाँ घनी होती हैं।

(iii) विलगन : परिपक्व पत्तियाँ, पुष्प और फल विलगन पर्त के बनने के कारण पौधे से पृथक् हो जाते हैं। ऑक्सिन; जैसे-IAA, IBA की विशेष सान्द्रता का छिड़काव करके अपरिपक्व फलों के विलगन को रोका जा सकता है। इससे फलों का उचित मूल्य प्राप्त होता है।

(iv) अनिषेकफलन: अनेक फलों में बिना परागण और निषेचन के भी फल को विकास हो जाता है; जैसे–अंगूर, केला, सन्तरा आदि में। ये फल बीजरहित होते हैं। ऑक्सिन का वर्तिकाग्र पर लेपन करने से बिना निषेचन के फल विकसित हो जाते हैं, इस प्रक्रिया को अनिषेकफलन कहते हैं। बीजरहित फलों में खाने योग्य पदार्थ की मात्रा अधिक होती है।

(v) खरपतवार निवारण: खेतों में प्रायः अनेक जंगली पौधे उग आते हैं, इन्हें खरपतवार कहते हैं। ये फसल के साथ प्रतिस्पर्धा करके पैदावार को प्रभावित करते हैं। परम्परागत तरीके से निराई-गुड़ाई, फसल चक्र अपनाकर खरपतवार नियन्त्रण किया जाता है। 2, 4-D नामक संश्लेषी ऑक्सिन का उपयोग करके एकबीजपत्री फसलों में उगने वाले द्विबीजपत्री खरपतवार को नष्ट किया जा सकता है।

(vi) कटे तनों पर जड़ विभेदन: अनेक पौधों में कलम लगाकर नए पौधे तैयार किए जाते हैं। ऑक्सिन: जैसे–IBA का उपयोग कलम के निचले सिरे पर करने से जड़े शीघ्र निकल आती हैं। अतः ऑक्सिन का उपयोग मुख्यतया सजावटी पौधों को तैयार करने में किया जाता है।

(vii) प्रसुप्तती नियन्त्रण: आलू के कन्द तथा अन्य भूमिगत भोजन संचय करने वाले भागों की प्रसुप्त कलिकाओं के प्रस्फुटन को रोकने के लिए इन्हें कम ताप पर संगृहीत किया जाता है। ऑक्सिने का छिड़काव करके इन्हें सामान्य ताप पर संगृहीत किया जा सकता है। ऑक्सिन कलिकाओं के लिए वृद्धिरोधक का कार्य करते हैं।


2. जिबरेलिन-

धान की फसल में बैकेन  नामक रोग एक कवक जिबरेली फ्यूजीकुरोई से होता है। इसमें पौधे अधिक लम्बे, पत्तियाँ पीली लम्बी और दाने छोटे होते हैं। कुरोसावा (1926) ने प्रमाणित किया कि यदि कवक द्वारा स्रावित रस को स्वस्थ पौधे पर छिड़का जाए तो स्वस्थ चौधा भी रोगी हो जाता है। याबुता और हयाशी ने कवक के रस से वृद्धि नियामक पदार्थ को पृथक् किया, इसे जिबरेलिन–A (GA) नाम दिया गया। सबसे पहले खोजा गया जिबरेलिन-As है। अब तक लगभग 110 प्रकार के GA खोजे जा चुके हैं। जिबरेलिन का पादप कार्यिकी पर प्रभाव एवं कृषि या बागवानी में महत्त्व

(i) लम्बाई बढ़ाने की क्षमता: जिबरेलिन के प्रयोग से आनुवंशिक रूप से बौने पौधे लम्बे हो जाते हैं, लेकिन यह लक्षण उन्हीं पौधों तक सीमित रहता है। जिन पर GA का छिड़काव किया जाता है। GA के उपयोग से सेब जैसे फल लम्बे हो जाते हैं। अंगुर के डंठल की लम्बाई बढ़ जाती है। गन्ने की खेती पर GA छिड़कने से तनों की लम्बाई बढ़ जाती है। इससे फसल का उत्पादन 20 टन प्रति एकड़ बढ़ जाता है।

(ii) पुष्पन पर प्रभाव: कुछ पौधों को पुष्पन हेतु कम ताप तथा दीर्घ प्रकाश अवधि की आवश्यकता होती है। यदि इन पौधों पर GA का छिड़काव किया जाए तो पुष्पन सुगमता से हो जाता है। द्विवर्षी पौधे एकवर्षी पौधों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। GA के इस प्रभाव को बोल्टिग प्रभाव कहते हैं। इसका उपयोग चुकन्दर, गाजर, मूली, पत्तागोभी आदि के पुष्पन के लिए किया जाता है।

(iii) अनिषेकफलन : GA के छिड़काव से पुष्प से बिना निषेचन के फल बन जाता है। फल बीजरहित होते हैं।

(iv) जीर्णता या जरावस्था: GA फलों को जल्दी गिरने से रोकने में सहायक होते हैं।

(v) बीजों का अंकुरण: GA बीजों के अंकुरण को प्रेरित करते हैं।

(vi) पौधों की परिपक्वता: GA का छिड़काव करने से अनावृतबीजी पौधे शीघ्र परिपक्व होते हैं और बीज जल्दी तैयार हो जाता है।


3. सायटोकाइनिन

सायटोकाइनिन ऑक्सिने की सहायता से कोशिका विभाजन को उद्दीपित करते हैं। एफ० स्कूग तथा उसके सहयोगियों ने देखा कि तम्बाकू के तने के अन्तस्पर्व खण्ड से अविभेदित कोशिकाओं को समूह तभी बनता है, जब माध्यम में ऑक्सिन के अतिरिक्त सायटोकाइनिन नामक बढ़ावा देने वाला तत्त्व मिलाया गया। इसका नाम काइनेटिने रखा। लेथम तथा सहयोगियों ने मक्का के बीज से ऐसा ही पदार्थ प्राप्त करके इसका नाम जिएटिन रखा। काइनेटिन और जिएटिन सायटोकाइनिन ही हैं। सायटोकाइनिन का कार्यिकी प्रभाव एवं महत्त्व ये पदार्थ कोशिका विभाजन को प्रेरित करते हैं। ये जीर्णता को रोकते हैं।कोशिका विभाजन के अतिरिक्त सायटोकाइनिन पौधों के अंगों केनिर्माण को नियन्त्रित करते हैं। यदि तम्बाकू की कोशिकाओं का संवर्धन शर्करा तथा खनिज लवणयुक्त माध्यम में किया जाए तो केवल कैलस ही विकसित होता है। यदि माध्यम में सायटोकाइनिन और ऑक्सिन का अनुपात बदलता रहे तो जड़ अथवा प्ररोह का विकास होता है। संवर्धन के प्रयोग आनुवंशिक इन्जीनियरी के लिए लाभदायक हैं; क्योंकि नई किस्म के पौधे उत्पन्न करने में कोशिका संवर्धन लाभदायक है।


4. ऐब्सीसिक अम्ल

कार्ल्स एवं एडिकोट ने कपास के पौधे की पुष्पकलिकाओं से एक पदार्थ ऐब्सीसिन प्राप्त किया। इस पदार्थ को किसी पौधे पर छिड़कने से पत्तियों का विलगन हो जाता है। वेयरिंग (1963) ने एसर की पत्तियों से डॉरमिन प्राप्त किया, यह बीजों के अंकुरण और कलिकाओं की वृद्धि का अवरोधन करता है। इन दोनों पदार्थों को ऐब्सीसिक अम्ल कहा गया। ऐब्सीसिक अम्ल का कार्यिकी प्रभाव एवं महत्त्व

(i) विलगने: यह पत्तियों के विलगन को प्रेरित करता है।

(ii) कलिकाओं की वृद्धि एवं बीजों का अंकुरण: यह कलिकाओं की वृद्धि और बीजों के अंकुरण को रोकता है।

(iii) जीर्णता: यह जीर्णता को प्रेरित करता है।

(iv) वाष्पोत्सर्जन नियन्त्रण: यह रन्ध्रों को बन्द करके वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करता है। इसका उपयोग कम जल वाली भूमि में खेती करने के लिए उपयुक्त है।

(v) कन्द निर्माण: आलू में कन्द निर्माण में सहायता करता है।

(vi) कोशिकाविभाजन एवं कोशिका दीर्धीकरण: ऐब्सीसिक अम्ल कोशिका विभाजन तथा कोशिका दीर्धीकरण को अवरुद्ध करता है। ऐब्सीसिक अम्ल बीजों को प्रसुप्ति के लिए प्रेरित करने और शुष्क परिस्थितियों में पौधे का बचाव करता है।


5. एथिलीन

बर्ग (1962) ने एथिलीन को पादप हॉर्मोन सिद्ध किया। यह मुख्यत: पकने वाले फलों से निकलने वाला गैसीय हॉर्मोन होता है। एथिलीन का कार्यिकी प्रभाव एवं महत्त्व

(i) पुष्पन: यह सामान्यतया पुष्पन को कम करता है, लेकिन अनन्नास में पुष्पन को प्रेरित करता है।

(ii) विलगने: यह पत्ती, पुष्प तथा फलों के विलगन को तीव्र करता है।

(iii) पुष्प परिवर्तन: कुकरबिटेसी कुल के पौधों में एथिलीन नर पुष्पों की संख्या को कम करके मादा पुष्पों की संख्या को बढ़ाता है।

(iv) फलों को पकना: यह फलों को पकाने में सहायक होता है। (आम,केला, अंगूर आदि फलों को पकाने के लिए इथेफोन) का प्रयोग औद्योगिक स्तर पर किया जा रहा है। इससे पके फल

प्राकृतिक रूप से पके फलों के समान होते हैं। इथेफोन से एथिलीन गैस निकलती है।)


5. दीप्तिकालिता तथा वसन्तीकरण क्या है? इनके महत्त्व का वर्णन कीजिए।

उत्तर : (क)दीप्तिकालिता पौधों के फलने-फूलने, वृद्धि, पुष्पन आदि पर प्रकाश की अवधि का प्रभाव पड़ता है। पौधों द्वारा प्रकाश की अवधि तथा समय के प्रति अनुक्रिया को दीप्तिकालिता कहते हैं। दिन व रात के परिवर्तनों के प्रति कार्यात्मक अनुक्रियाएँ दीप्तिकालिता कहलाती है। दीप्तिकालिता. ‘ शब्द का प्रयोग गार्नर तथा एलार्ड (1920) ने किया। दीप्तिकालिता के आधार पर पौधों को मुख्य रूप से तीन समूहों में बाँट लेते हैं-

  • अल्प प्रदीप्तकाली पौधा 

  • दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधा 

  • तटस्थ प्रदीप्तकाली पौधा 

अल्प प्रदीप्तकाली पौधों को मिलने वाली प्रकाश अवधि को कम करके और दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधों को अतिरिक्त प्रकाश अवधि प्रदान करके पुष्पन शीघ्र कराया जा सकता है।

(ख) कायिक शीर्षस्थ या कक्षस्थ कलिका उपयुक्त प्रकाश अवधि प्राप्त होने पर ही पुष्प कलिका में रूपान्तरित होती है। यह परिवर्तन फ्लोरिजन हॉर्मोन के कारण होता है जो दिन और रात्रि के अन्तराल के कारण संश्लेषित होता है। वसन्तीकरण कम ताप काल में पुष्पन को प्रोत्साहन वसन्तीकरणं कहलाता है। कुछ पौधों में पुष्पन गुणात्मक या मात्रात्मक तौर पर कम तापक्रम में अनावृत होने पर निर्भर करता है। इस गुण को वसन्तीकरण कहते हैं। वसन्तीकरण शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टी०डी० लाइसेन्को (1928) ने किया था। गेहूँ की शीत प्रजाति को वसन्त ऋतु में बोने योग्य बनाने के लिए इसके भीगे बीजों को 10-12 दिन तक 3°C ताप पर रखते हैं और फिर वसन्ती गेहूँ के साथ बोने से यह वसन्ती गेहूं के साथ ही पककर तैयार हो जाता है। पौधों में कायिक वृद्धि कम होती है। कम ताप उपचार से पौधे की कायिक अवधि कम हो जाती है। अनेक द्विवर्षी पौधों को कम तापक्रम में अनावृत कर दिए जाने से पौधों में दीप्तिकालिता के कारण पुष्पन की अनुक्रिया बढ़ जाती है। वसन्तीकरण के फलस्वरूप द्विवर्षी पौधों में प्रथम वृद्धिकाल में ही पुष्पन किया जा सकता है। पौधों में शीत के प्रति प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। वसन्तीकरण द्वारा पौधों को प्राकृतिक कुप्रभावों; जैसे-पाला, कुहरा आदि से बचाया जा सकता है।


6. एब्सिसिक अम्ल को तनाव हार्मोन क्यों कहते हैं?

उत्तर :एब्सिसिक अम्ल का मुख्य कार्य प्रसुप्ति तथा विलगन का नियमन है। यह पादप वृद्धि निरोधक है। यह बीज के अंकुरण को रोकता है, रन्ध्र के बन्द होने को उत्तेजित करता है तथा विभिन्न प्रकार के तनावों को झेलने की क्षमता पौधों को देता है। अतः इसे तनाव हार्मोन कहते हैं।


7. उच्च पादपों में वृद्धि एवं विभेदन खुला होता है, टिप्पणी करें?

उत्तर :पौधों में वृद्धि विशिष्ट प्रकार से होती है क्योंकि जीवनपर्यन्त उनमें वृद्धि की क्षमता होती है। ऐसा उनके विभज्योतक ऊतकों की स्थिति के कारण होता है। अतः इसे खुला’ वृद्धि व विभेदन कहते हैं।


8.अल्प प्रदीप्तकाली पौधे और दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधे किसी एक स्थान पर साथ-साथ फूलते हैं। विस्तृत व्याख्या कीजिए।

उत्तर :अल्प प्रदीप्तकाली पौधों में निर्णायक दीप्तिकाल प्रकाश की वह अवधि है जिस पर या इससे कम प्रकाश अवधि पर पौधे पुष्प उत्पन्न करते हैं, परन्तु उससे अधिक प्रकाश अवधि में पौधा पुष्प उत्पन्न नहीं कर सकता। दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधों में निर्णायक दीप्तिकाल प्रकाश की वह अवधि है। जिससे अधिक प्रकाश अवधि पर पौधे पुष्प उत्पन्न करते हैं, परन्तु उससे कम प्रकाश अवधि में पुष्प उत्पन्न नहीं होते। अत: अल्प प्रदीप्तकाली पौधों और दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधों में विभेदन उनमें निर्णायक दीप्तिकाल से कम अवधि पर पुष्पन होना अथवा अधिक अवधि पर पुष्प उत्पन्न होने के आधार पर कियाजाता है। दो जातियों के पौधे समान अवधि के प्रकाश में पुष्प उत्पन्न करते हैं, परन्तु उनमें से एक अल्प प्रदीप्तकाली पौधा तथा दूसरा दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधा हो सकता है; जैसे-जैन्थियम का निर्णायक दीप्तिकाल 15 1/2 घण्टे है और हाईओसायमस नाइजर को निर्णायक दीप्तिकाल 11 घण्टे है। दोनों पौधे 14 घण्टे की प्रकाशीय अवधि में पुष्प उत्पन्न कर सकते हैं। इस आधार पर जैन्थियम अल्प प्रदीप्तकाली पौधा है क्योंकि यह निर्णायक दीप्तिकाल से कम प्रकाशीय अवधि में पुष्पन करता है तथा हाइओसायमस नाइजर दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधा है; क्योंकि यह निर्णायक दीप्तिकाल से अधिक प्रकाश अवधि में पुष्पन करता है।


9.अगर आपको ऐसा करने को कहा जाए तो एक पादप वृद्धि नियामक का नाम दें-

(क) किसी टहनी में जड़ पैदा करने हेतु

उत्तर : ऑक्सिन


(ख) फल को जल्दी पकाने हेतु

उत्तर : एथिलीन


(ग) पत्तियों की जरावस्था को रोकने हेतु

उत्तर : साइटोकाइनिन


(घ) कक्षस्थ कलिकाओं में वृद्धि कराने हेतु

उत्तर : ऑक्सिन, साइटोकाइनिन


(ङ) एक रोजेट पौधे में ‘बोल्ट’ हेतु

उत्तर : जिबरेलिन


(च) पत्तियों के रन्ध्र को तुरन्त बन्द करने हेतु

उत्तर : एब्सिसिक अम्ल


10. क्या एक पर्णरहित पादप दीप्तिकालिता के चक्र से अनुक्रिया कर सकता है? हाँ या नहीं। क्यों?

उत्तर :प्रकाश अन्धकार काल का अनुभव पत्तियाँ करती हैं। इनमें बनने वाला फ्लोरिजन तना कलिका में पुष्पन प्रेरित करने के लिए तभी जाती हैं जब पौधे आवश्यक प्रेरित दीप्तिकाल में अनावृत होते हैं। ऐसा माना जाता है कि फ्लोरिजन (हार्मोन) पुष्पन के लिए उत्तरदायी है।


11. क्या हो सकता है अगर?

(क) जी एGAs) को धान के नवोभिदों पर डाला जाए।

उत्तर : धान के पौधों की लम्बाई में वृद्धि होती है।


(ख) विभाजित कोशिका विभेदन करना बन्द कर दें।

उत्तर : कोशिका विभेदन के रुक जाने से संरचनात्मक परिवर्तन आते हैं।


(ग) एक सड़ा फल कच्चे फलों के साथ मिला दिया जाए।

उत्तर : कच्चे फल तेजी से पक जाएँगे।


(घ) अगर आप संवर्धन माध्यम में साइटोकाइनिन डालना भूल जाएँ।

उत्तर : यदि संवर्धन माध्यम में साइटोकाइनिन डालना भूल जाएँ तो कोशिका विभाजन, वृद्धि व विभेदन पर असर पड़ेगा। कोशिकाओं को जो केलस बनता है उनमें विभेदन न होने से कलिकाएँ नहीं बन सकती हैं।


NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 15 Plant Growth and Development in Hindi

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