NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 18 Body Fluids and Circulation in Hindi PDF Download
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Class: | |
Subject: | |
Chapter Name: | Chapter 18 - Body Fluids and Circulation |
Content-Type: | Text, Videos, Images and PDF Format |
Academic Year: | 2024-25 |
Medium: | English and Hindi |
Available Materials: | Chapter Wise |
Other Materials |
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Access NCERT Solutions for Class 11 Biology Chapter 18 - शरीर द्रव तथा परिसंचरण
1. रक्त के संगठित पदार्थों के अवयवों का वर्णन कीजिए तथा प्रत्येक अवयव के एक प्रमुख कार्य के बारे में लिखिए।
उत्तर: इसके अन्तर्गत रुधिर (blood) तथा लसीका (lymph) आते हैं। इसका तरल मैट्रिक्स प्लाज्मा (plasma) कहलाता है। प्लाज्मा में तन्तुओं का अभाव होता है। प्लाज्मा में पाई जाने वाली कोशिकाओं को रुधिराणु (corpuscles) कहते हैं। तरल ऊतक सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर वाहिनियों (vessels) और कोशिकाओं (capillaries) में बहता रहता है। कोशिकाएं या रुधिराणु स्वयं प्लाज्मा का स्राव नहीं करती हैं।
रुधिर (Blood): रुधिर जल से थोड़ा अधिक श्यान (viscous), हल्का क्षारीय (pH 7.3 से 7.4 के बीच) तथा स्वाद में थोड़ा नमकीन होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में रक्त शरीर के कुल भार को 7% से 8% होता है। रुधिर की औसत मात्रा 5 लीटर होती है। रुधिर के दो मुख्य घटक (components) होते हैं:-
प्लाज्मा (Plasma)
रुधिर कोशिकाएं (Blood Corpuscles)
1. प्लाज्मा (Plasma): यह हल्के पीले रंग का, हल्का क्षारीय एवं निर्जीव तरल है। यह रुधिर का लगभग 55% भाग बनाता है। प्लाज्मा में 90% जल होता है। 8 से 9% कार्बनिक पदार्थ होते हैं तथा लगभग 1% अकार्बनिक पदार्थ होते हैं।
(क) कार्बनिक पदार्थ (Organic Substances): रक्त प्लाज्मा में लगभग 7% प्रोटीन होती है। प्रोटीन मुख्यतः एल्बुमिन (albumin), ग्लोबुलिन (globulin), प्रोथ्रोम्बिन (prothrombin) तथा फाइब्रिनोजेन (fibrinogen) होती हैं। इनके अतिरिक्त हॉर्मोन्स, विटामिन्स, श्वसन गैसें, हेपरिन(heparin), यूरिया, अमोनिया, ग्लूकोज, अमीनो अम्ल, वसा अम्ल, ग्लिसरॉल, प्रतिरक्षी (antibodies) आदि होते हैं। प्लाज्मा प्रोटीन रुधिर का परासरण दाब (osmotic pressure) बनाए रखने में सहायक है। कुछ प्रोटीन प्रतिरक्षी की भांति कार्य करती हैं। प्रोथ्रोम्बिन तथा फाइब्रिनोजेन रुधिर स्कंदन (blood clotting) में सहायता करते हैं। हेपरिन प्रतिस्कंदक (anticoagulant) है।
(ख) अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Substances): अकार्बनिक पदार्थों में सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम तथा पोटैशियम के फॉस्फेट, बाइकार्बोनेट, सल्फेट तथा क्लोराइड्स आदि पाए जाते हैं।
2. रुधिर कणिकाएं या रुधिराणु (Blood Cells or Blood Corpuscles): ये रुधिर का 45% भाग बनाते हैं। रुधिराणु तीन प्रकार के होते हैं। इनमें लगभग 99% लाल रुधिराणु हैं। शेष श्वेत रुधिराणु तथा रुधिर प्लेटलेट्स होते हैं।
(क) लाल रुधिराणु (Red Blood Corpuscles or Erythrocytes): मेंढक के रक्त में इनकी संख्या 4.5 लाख से 5.5 लाख प्रति घन मिमी होती है। मनुष्य में इनकी संख्या 54 लाख प्रति घन मिमी होती है। स्तनियों के रुधिराणु केन्द्रक रहित, गोल तथा उभयावतल (biconcave) होते हैं। इनमें लौह युक्त यौगिक हीमोग्लोबिन पाया जाता है। ये ऑक्सीजन परिवहन को कार्य करते हैं। अन्य कशेरुकियों में लाल रुधिराणु अण्डाकार तथा केन्द्रक युक्त होते हैं। लाल रुधिराणु ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) का कार्य करते हैं। इसका हीमोग्लोबिन (haemoglobin) ऑक्सीजन को ऑक्सी हीमोग्लोबिन (oxyhaemoglobin) के रूप में ऊतकों तक पहुँचाता है।
(ख) श्वेत रुधिराणु या ल्यूकोसाइट्स (Leukocytes): इनकी संख्या 6000-8000 प्रति घन मिमी होती है। ये केन्द्रक युक्त, अमीबा के आकार की तथा रंगहीन होती हैं। श्वेत रुधिराणु मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं:-
(i) कणिकामय (Granulocytes)
(ii) कणिकारहिते (Agranulocytes)
कणिकामय (Granulocytes):
केन्द्रक की संरचना के आधार पर ये तीन प्रकार की होती हैं :-
(अ) बेसोफिल्स (Basophils):
इनका केन्द्रक बड़ा तथा 2-3 पालियों में बँटा दिखाई देता है।
(ब) इओसिनोफिल्स (Eosinophils): इनका केन्द्रक दो स्पष्ट पिण्डों से बँटा होता है। दोनों भागे परस्पर तन्तु से जुड़े होते हैं। ये एलर्जी (allergy), प्रतिरक्षण (immunity) एवं अति संवेदनशीलता में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।
(स) न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils): इनका केन्द्रक 2 से 5 भागों में बँटा होता है। ये सूत्र द्वारा परस्पर जुड़े रहते हैं। ये भक्षकाणु (phagocytosis) द्वारा रोगाणुओं का भक्षण करते हैं।
कणिकारहिते (Agranulocytes): इनका कोशिका द्रव्य कोशिका रहित होता है। इसका केन्द्रक अपेक्षाकृत बड़ा व घोड़े की नाल के आकार का (horseshoe shaped) होता है। ये दो प्रकार की होती हैं :-
(अ) लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes): ये छोटे आकार के श्वेत रुधिराणु हैं। इनका कार्य प्रतिरक्षी (antibodies) का निर्माण करके शरीर की सुरक्षा करना है।
(ब) मोनोसाइट्स (Monocytes): ये बड़े आकार की कोशिकाएँ हैं, जो भक्षकाणु क्रिया (phagocytosis) द्वारा शरीर की सुरक्षा करती हैं।
कार्य (Functions):
श्वेत रुधिराणु रोगाणुओं एवं हानिकारक पदार्थों से शरीर की सुरक्षा करते हैं।
(ग) रुधिर बिम्बाणु या रुधिर प्लेटलेट्स (Blood Platelets or Thrombocytes): इनकी संख्या 2 लाख से 5 लाख प्रति घन मिमी तक होती है। ये उभयोत्तल (biconvex), तश्तरीनुमा होते हैं। ये रुधिर स्कंदन में सहायक होते हैं। स्तनधारियों के अतिरिक्त अन्य कशेरुकियों में रुधिर प्लेटलेट्स के स्थान पर स्पिंडल कोशिकाएं (spindle cells) पाई जाती हैं। इनमें केन्द्रक पाया जाता है।
2. प्लाज्मा (प्लाज्मा) प्रोटीन का क्या महत्व है?
उत्तर: फाइब्रिनोजेन, ग्लोब्यूलिन तथा एल्ब्यूमिन आदि मुख्य प्लाज्मा प्रोटीन हैं। इसका महत्व निम्न कारणों से बहुत अधिक है :-
रुधिर के थक्का जमने के लिए फाइब्रिनोजेन की आवश्यकता होती है।
ग्लोब्यूलिन शरीर की रक्षात्मक क्रियाओं में प्राथमिक रूप से आवश्यक है।
एल्ब्यूमिन ऑस्मोटिक संतुलन में सहायता करते हैं।
3. स्तम्भ I का स्तम्भ II से मिलान करें
स्तम्भ I – स्तम्भ II
(i) इओसिनोफिल्स – (a) रक्त जमाव (स्पंदन)
(ii) लाल रुधिर कणिकाएं – (b) सर्व आदाता
(iii) AB रुधिर समूह – (c) संक्रमण प्रतिरोध
(iv) पट्टिकाणु प्लेटलेट्स – (d) हृदय संकुचन
(v) प्रकुंचन (सिस्टोल) – (e) गैस परिवहन (अभिगमन)
उत्तर: (i) - c
(ii) - e
(iii) - b
(iv) - a
(v) - d
4. रक्त को एक संयोजी ऊतक क्यों मानते हैं?
उत्तर: रक्त विशेष संयोजी ऊतक है जिसमें द्रव्य पदार्थ, प्लाज्मा तथा अन्य अवयव मिलते हैं। ये सम्पूर्ण शरीर में परिसंचरण करते हैं।
5. लसीका एवं रुधिर में अंतर बताइए।
उत्तर: लसीका एवं रुधिर में अंतर :-
लसीका | रुधिर |
लसीका एक रंगहीन द्रव है जिसमें विशेष लिम्फोसाइट मिलती है। यह महत्वपूर्ण पोषक तत्वों, हार्मोन आदि का संवाहक भी है। वसा का अवशोषण क्षुद्रांत्र के रसांकुर में उपस्थित लसीका वाहिनियां में होता है | रुधिर द्रव्य माध्यम प्लाज्मा से निर्मित है। इसमें तीन प्रकार की रुधिर कणिकाएं मिलती हैं जैसे-लाल रुधिर कणिकाएं, सफेद रुधिर कणिकाएं तथा प्लेटलेट। रुधिर कणिकाएं अस्थि मज्जा में निर्मित होती हैं। |
6. दोहरे परिसंचरण से क्या तात्पर्य है? इसकी क्या महत्ता है?
उत्तर: दोहरा परिसंचरण (Double Circulation):
यह पक्षियों तथा स्तनियों में पाया जाता है। इन प्राणियों में शुद्ध तथा अशुद्ध रक्त पृथक् रहता है। हृदय के बाएं भाग को सिस्टेमिक हृदय (systemic heart) तथा बाएँ भाग को पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) कहते हैं। इनमें शुद्ध तथा अशुद्ध रक्त पृथक् रहने के कारण इसे द्वि चक्रीय परिसंचरण या दोहरा परिसंचरण कहते हैं। दोहरे परिसंचरण का महत्व दोहरे परिसंचरण में हृदय में दो अलिंद तथा दो निलय होते हैं। इस कारण हृदय में शुद्ध रुधिर तथा अशुद्ध रुधिर अलग-अलग रहते हैं। हृदय के दाएँ भाग में सारे शरीर से अशुद्ध रुधिर आता है तथा यह रुधिर पल्मोनरी चाप द्वारा फेफड़ों में शुद्ध होने के लिए चला जाता है। हृदय के बाएं भाग में पल्मोनरी शिराओं द्वारा शुद्ध रुधिर आता है तथा यह कैरोटिड सिस्टेमिक चाप द्वारा सारे शरीर में प्रवाहित हो जाता है।
इस प्रकार दोहरे परिसंचरण में कहीं भी शुद्ध व अशुद्ध रुधिर का मिश्रण न होने के कारण परिसंचरण अधिक प्रभावशाली (efficient) रहता है। इसके अतिरिक्त दो अलग-अलग बंद कक्ष होने के कारण रुधिर प्रवाह के लिए अधिक दाब उत्पन्न होता है।
7. भेद स्पष्ट करें
(क) रक्त एवं लसीका
उत्तर:
रक्त | लसीका |
रक्त द्रव्य माध्यम प्लाज्मा से निर्मित है। इसमें तीन प्रकार की रुधिर कणिकाएं मिलती हैं जैसे-लाल रुधिर कणिकाएं, सफेद रुधिर कणिकाएं तथा प्लेटलेट। रुधिर कणिकाएं अस्थि मज्जा में निर्मित होती हैं। | लसिका एक रंगहीन द्रव है जिसमें विशेष लिम्फोसाइट मिलती है। यह महत्वपूर्ण पोषक तत्वों, हार्मोन आदि का संवाहक भी है। वसा का अवशोषण क्षुद्रांत्र के रसांकुर में उपस्थित लसीका वाहिनियां में होता है |
(ख) खुला व बंद परिसंचरण तंत्र।
उत्तर:
खुला परिसंचरण तंत्र | बंद परिसंचरण तंत्र |
खुला परिसंचरण तंत्र आर्थोपोडा तथा मोलस्का में मिलता है जिसमें हृदय द्वारा पंप किया रुधिर बड़ी वाहिनियों से देहगुहा के कोटरों में भेजा जाता है। | ऐनेलिडा तथा कशेरुकियों में बंद परिसंचरण तंत्र मिलता है जिसमें रुधिर हृदय द्वारा निरंतर पंप किया जाता है तथा रुधिर वाहिनियों के जाल में बहता रहता है। |
(ग) प्रकुंचन व अनुशिथिलन ।
उत्तर:
प्रकुंचन | अनुशिथिलन |
लसिका एक रंगहीन द्रव है जिसमें विशेष लिम्फोसाइट मिलती है। यह महत्त्वपूर्ण पोषक तत्वों, हार्मोन आदि का संवाहक भी है। वसा का अवशोषण क्षुद्रांत्र के रसांकुर में उपस्थित लसीका वाहिनियां में होता है। | रुधिर द्रव्य माध्यम प्लाज्मा से निर्मित है। इसमें तीन प्रकार की रुधिर कणिकाएं मिलती हैं जैसे-लाल रौधिरकणिकाएँ, सफेद रुधिर कणिकाएँ तथा प्लेटलेट। रुधिर कणिकाएं अस्थि मज्जा में निर्मित होती हैं। |
(घ) ‘P’ तरंग तथा ‘T’ तरंग।
उत्तर:
'P' तरंग | 'T' तरंग |
इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम में P तरंग को अलिंद के उद्दीपन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे दोनों आलिंद का संकुचन होता है। | 'T' तरंग निलय की उत्तेजना से सामान्य अवस्था में वापस आने की स्थिति को प्रदर्शित करता है। 'T' तरंग का अंत प्रकुंचन अवस्था की समाप्ति का द्योतक है। |
8. कशेरुकी के हृदय में विकासीय परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर: कशेरुकी प्राणियों में हृदय का निर्माण भ्रूण के मध्य स्तर (mesoderm) से होता है। भ्रूण अवस्था में आद्यांत्र (archenteron) के नीचे आधारीय आन्त्र योजनी (mesentery) में दो अनुदैर्ध्य अन्तःस्तरी नलिकाएँ (endothelial canals) परस्पर मिलकर हृदय का निर्माण करती हैं। हृदय एक पेशीय थैलीनुमा रचना होती है। यह शरीर से रक्त एकत्र करके धमनियों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पंप करता है। कशेरुकी प्राणियों में हृदय निम्नलिखित प्रकार के होते हैं -
(क) एक कोष्ठीय हृदय (Single-chambered Heart): सरलतम हृदय सिफेलो कॉर्डेटा (cephalochordates) जंतुओं में पाया जाता है। ग्रसनी के नीचे स्थित अधरीय एओर्टा पेशीय होकर रक्त को पंप करने का कार्य करता है। इसे एक कोष्ठीय हृदय मानते हैं।
(ख) द्विकोई य हृदय (Two-chambered Heart): मछलियों में द्विकोष्ठीय हृदय होता है। यह अनॉक्सी जनित रक्त को गिल्स (gills) में पंप कर देता है। गिल्स से यह रक्त ऑक्सीजनित होकर शरीर में वितरित हो जाता है। इसमें धमनीकोटर एवं शिरा कोटर सहायक कोष्ठ तथा आलिंद और निलय वास्तविक कोष्ठ होते हैं, इस प्रकार के हृदय को शिरीय हृदय (venous heart) कहते हैं।
(ग) तीन कोष्ठीय हृदय (Three-chambered Heart): उभयचर (amphibians) में तीन कोष्ठीय हृदय पाया जाता है। इसमें दो अलिंद तथा एक निलय होता है। शिरा कोटर (sinus venosus) दाहिने अलिंद के पृष्ठ तल पर खुलता है। बाएं आलिंद में शुद्ध तथा दाहिने आलिंद में अशुद्ध रक्त रहता है। निलय पेशीय होता है। वान्डरवाल तथा फंक्शन के अनुसार उभयचरों में मिश्रित रक्त वितरित होता है। इसमें रुधिर संचरण एक परिपथ (single circuit) वाला होता है।
(घ) चार कोष्ठीय हृदय (Four-chambered Heart): अधिकांश सरीसृपों में दो अलिंद तथा दो अपूर्ण रूप से विभाजित निलय पाए जाते हैं। मगरमच्छ के हृदय में दो अलिंद तथा दो निलय होते हैं। पक्षी तथा स्तनी जन्तुओं में दो अलिंद तथा दो निलय होते हैं। बाएं अलिंद तथा बाएँ निलय में शुद्ध रक्त भरा होता है। इसे दैहिक चाप द्वारा शरीर में पंप कर दिया जाता है। दाएँ। अलिन्द में शरीर के विभिन्न भागों से अशुद्ध रक्त एकत्र होता है। यह दाएँ निलय से शुद्ध होने के लिए फेफड़ों में भेज दिया जाता है। इस प्रकार हृदय का बायां भाग पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) तथा दायां भाग सिस्टेमिक हृदय (systemic heart) कहलाता है। इन प्राणियों में दोहरा परिसंचरण होता है। इसमें रक्त के मिश्रित होने की संभावना नहीं होती।
9. हम अपने हृदय को पेशीजनक (मायोजेनिक) क्यों कहते हैं?
उत्तर: हृदय की भित्ति हृद पेशियां (cardiac muscles) से बनी होती है। हृद पेशियाँ रचना में रेखित पेशियों के समान होती हैं, लेकिन कार्य में अरेखित पेशियों के समान अनैच्छिक होती हैं। हृदय पेशियां मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्रता, स्वयं बिना थके, बिना रुके, एक निश्चित दर (मनुष्य में 72 बार प्रति मिनट) और एक निश्चित लय (rhythm) से जीवन भर संकुचित और शिथिल होती रहती हैं। प्रत्येक हृदय स्पन्दन में संकुचन की प्रेरणा, प्रेरणा-संवहनीय पेशी के तन्तुओं ‘S-A node’ से प्रारम्भ होती है। S-A node से संकुचन प्रेरणा स्व:उत्प्रेरण द्वारा उत्पन्न होकर A-Vnode तथा हिस के समूह (bundle of His) से होकर पुरकिन्जे तन्तुओं द्वारा अलिन्द और निलयों में फैलती है। हृदय पेशियों में संकुचन के लिए तन्त्रिकीय प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। पेशियों में संकुचन पेशियों के कारण होते हैं अर्थात् संकुचन पेशीजनक (myogenic) होते हैं। यदि हृदय में जाने वाली तन्त्रिकाओं को काट दें तो भी हृदये अपनी निश्चित दर से धड़कता रहता है। तन्त्रिकीय प्रेरणाएँ हृदय की गति की दर को प्रभावित करती हैं। हृदय पेशियों के तन्तुओं में ऊर्जा उत्पादन हेतु प्रचुर मात्रा में माइटोकॉण्ड्रिया पाए जाते हैं।
10. शिरा अलिन्द पर्व (कोटरालिन्द गाँठ SAN) को हृदय का गति प्रेरक (पेस मेकर) क्यों कहा जाता है?
उत्तर: शिरा अलिन्द पर्व (कोटरालिन्द गाँठ SAN): दाएँ अलिन्द की भित्ति के अग्र महाशिरा छिद्र के समीप शिरा अलिन्द घुण्डी (Sino Atrial Node, SAN) स्थित होती है। इसे गति प्रेरक (pacemaker) भी कहते हैं। इससे स्पन्दन संकुचन प्रेरणा स्वतः: उत्पन्न होती है। इसके तन्तुओं में-55 से 60 मिलीवोल्ट का विश्राम विभव (resting potential) होता है, जबकि हृदय पेशियों में यह-85 से 95 मिली वोल्ट और हृदय में फैले विशिष्ट चालक तन्तुओं में 90 से -100 मिलीवोल्ट होता है। शिरा अलिन्द पर्व (SAN) से सोडियम आयनों के लीक होने से हृदय स्पन्दन प्रारम्भ होता है। शिरा अलिन्द पर्व की लयबद्ध उत्तेजना प्रति मिनट 72 स्पन्दनों की एक सामान्य विराम दर पर जीवन पर्यन्त चलती रहती है।
11. अलिंद निलय गांठ (AVN) तथा आलिंद निलय बंडल (AVB) का हृदय के कार्य में क्या महत्व है?
उत्तर: अलिंद निलय गांठ (Auriculo ventricular Node)-शिरा अलिन्द पर्व के तंतु अंत में अपने चारों ओर के अलिन्द पेशी तंतुओं के साथ मिलकर शिरा अलिन्द पर्व तथा आलिंद निलय गांठ (AVN) के बीच एक अन्तरापर्वतीय पथ का निर्माण करते हैं। अलिंद निलय गांठ अंतरा अलिन्द पट के दाहिने भाग में हृद कोटर (कोरोनरी साइनस) के छिद्र के निकट होती है। अलिंद निलय गांठ के पेशीय तन्तु अलिंद निलय बंडल (bundle of His or Atrioventricular Bundle, AVB) से मिलकर निलय में दाएँ-बाएँ बँट जाते हैं। इनसे पुरकिन्जे तन्तुओं (Purkinje fibres) का निर्माण होता है। शिरा अलिन्द पर्व (SAN) में उत्पन्न संकुचन एवं शिथिलन के उद्दीपन अलिंद निलय गांठ (AVN) तथा आलिंद निलय बंडल (AVB) या हिस का बंडल (Bundle of His) से होते हुए निलय में स्थित पुरकिन्जे तन्तुओं में पहुंचते हैं। इसके फलस्वरूप हृदय के अलिंद तथा निलय में क्रमशः संकुचन एवं शिथिलन होता रहता है। हृदय शरीर के विभिन्न भागों से रक्त को एकत्र करके पुनः पम्प करता रहता है।
12. हृद चक्र तथा हृद निकास को परिभाषित कीजिए।
उत्तर: (i) हृद चक्र (Cardiac Cycle): एक हृदय स्पन्दन के आरम्भ से दूसरे स्पन्दन के आरम्भ होने के बीच के घटनाक्रम को हृद चक्र (cardiac cycle) कहते हैं। इस क्रिया में दोनों अलिन्दों तथा दोनों निलयों का प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन सम्मिलित होता है। हृदय स्पन्दन एक मिनट में 72 बार होता है। अतः एक हृदय चक्र का, समय 0.8 सेकण्ड होता है।
(ii) हृद निकास (Cardiac Output): हृदय प्रत्येक हृद चक्र में लगभग 70 मिली रक्त पम्प करता है, इसे प्रवाह आयतन (stroke volume) कहते हैं। प्रवाह आयतन को हृदय दर से गुणा करने पर जो मात्रा आती है, उसे हृद निकास (cardiac output) कहते हैं।
हृद निकास = हृदय दर x प्रवाह आयतन
अतः हृद निकास प्रत्येक निलय द्वारा रक्त की मात्रा को प्रति मिनट बाहर निकालने की क्षमता है जो स्वस्थ मनुष्य में लगभग 5 लीटर होती है। खिलाड़ियों का हृद निकास सामान्य मनुष्य से अधिक होता है।
13. हृदय ध्वनियों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: हृदय की ध्वनियाँ (Heart Sounds)-दाएं एवं बाएँ निलयों में आकुंचन एक साथ होता है, इसके फलस्वरूप त्रिवलन (tricuspid) तथा द्विवलनी (bicuspid) कपाट एक तीव्र ध्वनि ‘लब’ (lub) के साथ बंद होते हैं। नालियों में आकुंचन दबाव के कारण रक्त दोनों धमनी चापों में पंप हो जाता है। आकुंचन के समाप्त होने पर ज्यों ही रक्त धमनी चापों से निलय की ओर गिरता है तो धमनी चापों के आधार पर स्थित अर्द्धचन्द्राकार कपाट अपेक्षाकृत हल्की ध्वनि ‘डप’ (dup) के साथ बंद हो जाते हैं। हृदय की इन्हीं ध्वनि ‘लब’ एवं ‘डप’ को स्टेथोस्कोप (stethoscope) से सुनकर हृदय सम्बन्धी रोगों का निदान किया जाता है।
14. एक मानक ईसीजी को दर्शाइए तथा उसके विभिन्न खण्डों का वर्णन कीजिए।
उत्तर: विद्युत हृद लेखन (Electrocardiography): विद्युत हृद लेख (ECG) एक तरंगित आलेख होता है, इसमें एक सीधी रेखा से तीन स्थानों पर तरंगें उठती दिखाई देते हैं-P लहर, QRS सम्मिश्र (QRS Complex) तथा T तरंग (T-wave) P तरंग ऊपर की ओर उठी एक छोटी-सी लहर होती है। जो 0.1 सेकण्ड के आलिंद संकुचन (atrial systole को दर्शाती है। इसके समाप्त होने के लगभग 0.1 सेकण्ड बाद QRS सम्मिश्र की लहर प्रारम्भ होती है। ये तीन तरंगें होती हैं-नीचे की ओर Q तरंग, इससे उठी बड़ी R तरंग तथा इससे जुड़ी नीचे की ओर छोटी 5 तरंग। QRS सम्मिश्र निलय संकुचन के 0.3 सेकंड का सूचक होता है। फिर निलय संकुचन की अन्तिम प्रावस्था और इनके क्रमिक प्रसारण के प्रारम्भ की सूचक T तरंग होती है। ECG में प्रदर्शित तरंगों तथा उनके मध्यावकाशों के तरीके का अध्ययन करके हृदय की दशा का ज्ञान होता है।
इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (ECG) प्राप्त करने के लिए, हृदय के समीपवर्ती क्षेत्र में विशिष्ट स्थानों पर यदि इलेक्ट्रोड्स लगा दिए जाएँ तो हृदय संकुचन के समय जो विद्युत विभव शिरा अलिन्द गांठ (S-A node) से उत्पन्न होकर विशिष्ट संवाही पेशी तंतुओं (special conducting muscular fiber) से गुजर कर हृदय के मध्य स्तर की पेशियों के संकुचन को प्रेरित करता है, इसे मापा जा सकता है। इसे मापने के लिए जिस यंत्र का प्रयोग किया जाता है, उसे विद्युत हृद लेखी (electro cardiography) कहते हैं।
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